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सेवा से मात्र पुण्य का संचय होता है, कर्मों की निर्जरा नहीं - मुनिश्री सुप्रभ सागर

सिंगोली(माधवीराजे)।जिस प्रकार परीक्षा में अच्छे अंक लाने के लिए बार-बार अभ्यास करना होता है उसी प्रकार जीवन को उन्नत बनाने के लिए बार-बार भावना और पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है।मनुष्य ही मात्र एक ऐसा प्राणी है जो स्व के साथ ही पर के कल्याण की भावना कर सकता है।तीर्थंकर नाम कर्म जैसी पुण्य प्रकृति के बांधने हेतु निरन्तर स्वपर कल्याण की भावना करनी पड़ती है।सोलह कारण भावनाएँ इस पुण्य प्रकृति के आसव और बंध में सहकारी भावनाएँ है।दर्शन विशुद्धि से प्रारंभ कर साधु समाधि भावना तक चर्चा हो चुकी अब वैयावृत्त भावना की चर्चा करते हुए आचार्य देव कहते हैं कि गुणवानों पर आपत्ति-दुःख आने पर निर्दोष रीति से उनको दूर करने का नाम वैवावृत्त कहलाता है।भौतिकता में उलझे हुए जीवों की सेवा बहुत लोग करते है उस सेवा से मात्र पुण्य का संचय होता है,कर्मों की निर्जरा नहीं होती है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 2 दिसंबर शनिवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा कि साधुजनों, संतजनों की सेवा,उनके दुःख दूर करना ही सही वैयावृत्त है।साधु सेवा करते है तो तीन बातों का ध्यान रखता चाहिए पहली बात -पूर्ण श्रद्धा भक्ति से वैयावृत्त करना,द्वितीय बात-निःस्वार्थ सेवा करना और तीसरी बात-गुणों में अनुराग रखना है।मैं देने वाला हूँ,मेरी सेवा के बिना इनका काम नहीं चलेगा आदि काम करते है तो उस वैयावृत्त का सार लाभ नष्ट हो जाता है।किसी लौकिक वांछा के बिना निःस्वार्थ भाव से पूजा,सेवा करना चाहिए।वृक्ष के नीचे खड़े होकर छाया मांगनी नहीं पड़ती है वह स्वयं ही प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार गुरुजनों की सेवा करने पर वे अपने आप देते हैं।इस दौरान ऐलक श्री क्षीरसागर जी महाराज ने कहा कि भगवान पार्श्वनाथ मूलनायक के रूप में विराजमान हैं उनके 10 भवों का वर्णन आता है उसे पढकर ऐसा लगता है कि उनका जीवन संघर्षमय रहा और पुरुषार्थ से उन्होंने उन संघर्षों से पार पाकर अनन्त सुख प्राप्त किया तो भव्य जीवों को भी दुःख दूर करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।समता भावों के साथ निरन्तर लक्ष्य की ओर देखना चाहिए।इस अवसर पर सभी समाजजन उपस्थित थे।

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