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आत्म तत्व की प्राप्ति के लिए समता परिणाम रखना अनिवार्य है - मुनिश्री सुप्रभ सागर

सिंगोली(निखिल रजनाती)।जीवन-मरण में,लाभ-अलाभ में,धूल-स्वर्ण में,शत्रु-मित्र में सम भाव रखना,राग-द्वेष नहीं करना ही समता कहलाती है।ऐसी समता साधु प्रति समय रखता है।कोई मारे अथवा कोई पूजा करे,दोनों में समभाव रखता है।समता को आचार्यों ने पहला आवश्यक कहा है।जो सदैव करने योग्य है वे आवश्यक कहलाते हैं।साधकों के लिए आचार्यों ने प्रतिदिन छह आवश्यक करने को कहा है।समता को ही सामायिक भी कहा आचार्यों ने।सामायिक के द्वारा मन-वचन-काय की संचलता को रोक कर आत्मा के निकट पहुँचा जा सकता है।आत्म तत्व की प्राप्ति के लिए समता परिणाम रखना अनिवार्य है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 4 सितंबर सोमवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि चौबीसों तीर्थकरों के गुण स्मरण करने का काम ही स्तुति कहलाती है।अरहन्त-सिद्ध की प्रतिमाओं का,आचार्य परमेष्ठी की भक्ति करना वन्दना आवश्यक है। मानव के कार्य करने में जाने-अनजाने में,कोई दोष लगा हो तो उनकी निन्दा,आलोचना करना प्रतिक्रमण कहलाता है।भूल की आलोचना गुरु के समक्ष करने से कर्म की निर्जरा होती है। मुनिश्री ससंघ के सानिध्य में 5 सितंबर मंगलवार को शिक्षक दिवस पर विशेष मंगल प्रवचन होंगे।इस अवसर पर सभी समाजजन उपस्थित रहेंगे।

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