नीमच(न.प्र.)। संसार मे दो व्यवस्थाऐं है लौकिक व लोकोत्तर लोकिक वो जो सांसारिक कार्य में प्रवृत्त लोकोत्तर वो जो आत्म कल्याण का प्रेरक। क्षणिक प्रमाद (आलस)किस दुर्गती का कारण बनता है इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। हमें धर्म के कार्य मे आलस आता है लेकिन सांसारिक व्यवहार मे हम चुस्त रहते है प्रतिक्रमण, सामायिक, पोषद मे थकान महसूस होती है लेकिन सांसारिक कार्यों, आमोद प्रमोद मे हम जरा भी नही थकते। उपरोक्त बात प.पू. सौम्य रेखा श्री जी मा.सा. की शिष्या साध्वी सुचिता श्रीजी मा.सा. ने कही उन्होंने कहा कि धर्म दो प्रकार के प्रवृत्ति धर्म और निवृत्ति धर्म। प्रवृत्ति धर्म जिसमें पूजा, आरती, पाठ इत्यादि समाहित होते है वही निवृत्ति धर्म मे प्रतिक्रमण, सामायिक पोषद आते है प्रवृत्ति धर्म पुण्यों को बढा सकता है लेकिन मोक्ष नहीं दिला सकता वही निवृत्ति धर्म जो क्रिया से किया वो मोक्ष दिला सकता है। हमें प्रवृत्ति धर्म से निवृत्ति धर्म में बढना है कर्मों की निर्जरा कर मोक्ष प्राप्त करना है। इस अवसर पर साध्वी जी ने प्रमाद करके किस गति मे जा सकते हैं का उदाहरण मंगू आचार्य के कथानक के माध्यम से देते बताया की भोजन की आसकति ने उन्हें साधु से सुअर की योनी मे पहुंचा दिया। उन्होनें कहा की हमारी आसकति कितनी। इसलिए आसक्त न बनें। श्रावक की त्रिपदी की व्याख्या करते बताया की श्रावक बुद्धि मे हीन नही होता उसकी बुद्धि सद्बुद्धि और धर्मबुद्धि रहती है। उन्होनें कुबुद्धि का उदाहरण देते हुए बताया की कैसे गौशाला जो प्रभू महावीर का भक्त था कुबुद्धि आने से उनसे अलग हुआ न सिर्फ अलग हुआ बल्कि उसने प्रभू महावीर के दो शिष्य सहित प्रभू महावीर पर तेजोलेश्या(वो विद्या जिसके प्रयोग से व्यक्ति भस्मीभूत हो जाता है) का प्रयोग किया। आपने कहा की यही प्रार्थना करना चाहिए की सद्बुद्धि और धर्म बुद्धि का प्रवेश हो कुबुद्धि कभी न आए। अंत मे प्रश्नोत्तरी हुई और सर्व मंगल के साथ प्रवचन को विराम दिया गया।