श्रद्धालु अपनी जीभ तक चढा देते हैं आँत्रीमाता को
हमारे देश में जितने भी पवित्र स्थान या मंदिर है वहाँ भक्तों द्वारा अपनी मन्नत पूरी करने के लिए या मन्नत पूरी हो जाने पर अलग-अलग चढ़ावे चढ़ाये जाते हैं।आज हम एक ऐसे ही मंदिर की जानकारी आपको देने जा रहे है जहाँ श्रद्धा,भक्ति,आस्था और विश्वास की पराकाष्ठा है क्योंकि यहाँ भक्तों की मन्नत पूरी होने पर जीभ काटकर चढ़ाई जाती है या श्रद्धापूर्वक भी भक्त अपनी जीभ काटकर माता को अर्पित कर देते हैं।यह स्थान मध्यप्रदेश के मालवांचल में नीमच जिला मुख्यालय से करीब 58 किमी दूर मनासा तहसील के दक्षिण में स्थित है जिसे आँत्रीमाता मंदिर के नाम से जाना जाता है।आँत्रीमाता मंदिर को लेकर एक कथा भी प्रचलित है।कहा जाता है कि रामपुरा के राव दीवान घोड़े पर बैठकर प्रतिदिन अपनी आराध्य माँ के दर्शन हेतु आँत्रीमाता आते थे और पुनः रामपुरा लौट जाते थे।यह भी कहा जाता है कि माता दक्षिण दिशा में स्थित हनुमान घाट से आकर मंदिर में विराजमान हुई।हनुमान घाट के पत्थर पर माँ के वाहन का पद चिन्ह अंकित है जहाँ श्रद्धालुओं द्वारा पूजा अर्चना की जाती है वहीं मन्दिर में माता का पदचिन्ह,हाथ की कोन्ही के चिन्ह भी अंकित है।स्वयं प्रतिष्ठित माता जो मन्दिर के गर्भगृह में विराजित है उन्हें भैंसावरी माता के नाम से भी जाना जाता है जबकि ऐसा भी कहा जाता है कि चित्तौड़गढ़ दुर्ग के राणा भवानीसिंह के सुपुत्र चंद्रसिंह ने माँ की अनन्य भक्ति की और शुद्ध अंतःकरण की प्रार्थना से प्रसन्न होकर उनके साथ माँ कालिका (दुर्गा)आँत्री गाँव में पधारी।चंद्रसिंह चित्तौड़ से माँ कालिका को आँत्री लाये और प्रतिष्ठा की।आँत्रीमाता के समीप में दांईं ओर शेर की सवारी पर माँ कालिका (दुर्गा) की दिव्य प्रतिमा विराजित है।इस प्राचीन ऐतिहासिक मन्दिर का निर्माण नटनागर शोध संस्था सीतामऊ जिला-मंदसौर के अभिलेख के अनुसार विक्रम संवत् 1327 में तत्कालीन रामपुरा स्टेट के राव सेवाजी खीमाजी द्वारा करवाया गया था वहीं मालवा अँचल के लेखक,कवि एवं साहित्यकार डॉ.पूरण सहगल द्वारा लिखी पुस्तक चारण की बेटी के अनुसार मन्दिर करीब 700 वर्ष पुराना है।आँत्रीमाता के भव्य एवं चमत्कारिक मन्दिर को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे कि वह प्रकृति की गोद में स्थित हो क्योंकि डूब क्षेत्र में होने से बारिश और ठंड के मौसम के दौरान आँत्रीमाता का मंदिर चारों ओर से चम्बल नदी से घिरा हुआ रहता है जिससे प्राकृतिक जल सौंदर्य से मंदिर की शोभा द्विगुणित होकर मनमोहक हो जाती है जिसके चलते यहाँ भक्तों का मेला सा लग जाता है।आँत्रीमाता के दर्शन लाभ प्राप्त करने के बाद भक्त चम्बल नदी में नौका विहार का आनंद भी प्राप्त करते हैं।आँत्रीमाता मंदिर में भक्त अपनी मनोकामना लेकर आते हैं और जब माँ उनकी मनोकामना पूर्ण कर देती है व मनोकामना पूरी होने के बाद जब भक्त मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार से प्रवेश करते हैं और मंदिर की एक विशेष सीढ़ी पर अपना कदम रखते हैं तो एकाएक रूक जाते हैं और हथियार लाओ की आवाज लगाते हैं।मन्दिर के पुजारी उक्त भक्त को हथियार देते हैं और भक्त खुद अपनी जीभ काटकर पुजारी को देते हैं जिसके बाद पुजारी मन्दिर के गर्भगृह में जल रही अखण्ड ज्योत के ऊपर उस जीभ को चढ़ाते हैं और जीभ गायब हो जाती है।जब जीभ गायब हो जाती है तो माना जाता है कि माँ ने चढ़ावा स्वीकार कर लिया।जिस भक्त ने जीभ चढ़ाई होती है वह नौ दिनों तक मंदिर परिसर में ही रहता है तथा सिर्फ दूध का ही सेवन करता है जिसके बाद आँत्रीमाता की कृपा से नौ दिन बाद भक्त की जीभ पुनः आ जाती है।जीभ आने के बाद भक्त का परिवार उसे बैण्डबाजे,ढोल ढमाकों के साथ अपने घर ले जाते हैं।ऐसा नहीं है कि सिर्फ वे ही भक्त अपनी जीभ चढ़ाते हैं जिनकी मनोकामना पूर्ण होती है बल्कि कुछ ऐसे भक्त भी होते हैं जो श्रद्धापूर्वक अपनी जीभ माँ को भेंट करते हैं।
(संकलनकर्ता-शंकरगिर रजनाती)