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पापी से नहीं पाप से घृणा करो-मुनि श्री सुप्रभ सागर

सिंगोली(निखिल रजनाती)। धर्म धर्मात्मा और आगम की क्रियाओं के प्रति ग्लानि का भाव नहीं करना निर्विचिकित्सा नाम का सम्यक दर्शन का तृतीय अंग कहा गया है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से शिक्षा प्राप्त व वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमानसागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य मुनि श्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने अष्टान्हिका महापर्व के पांचवें दिन 30 जून शुक्रवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि जिसकी श्रद्धा समीचीन हो गई है वह बाहरी रूप रंग की ओर नहीं देखता है,वह उस शरीर में स्थित आत्मा के गुणों की ओर देखता है।आचार्यो ने व्यक्ति से घृणा करने का निषेध किया है,पापी से नहीं पाप से घृणा करो।जिस प्रकार शरीर का उपचार करने के लिए चिकित्सालय होता है उसी प्रकार आत्मा का उपचार जिनालय में होता है,शरीर तो स्वभाव से अनुचित है पर शरीर में गुणों को धारण करने वाली आत्मा के कारण पूज्यता को प्राप्त हो जाता है जिस प्रकार कीचड़ में भी कमल खिल जाता है उसी प्रकार अपवित्र शरीर में गुणों का आत्मा का विकास हो सकता है।बाहरी शरीर को देखकर जो अन्य का उपहास करता है वह चमत्कार के समान मात्र चरम पर दृष्टि रखने वाला होता है।इस दौरान मुनिश्री दर्शितसागर जी महाराज ने कहा कि मनुष्य का समय जीवन पानी के बुलबुले की भांति अस्थाई है परमात्मा ने हमें यह जीवन प्रदान किया है वह कब इसे वापस ले लेगा कहना समझना मुश्किल है इसलिए मनुष्य की भलाई इसी में है कि जो मनुष्य जन्म हमें मिला है हमें देव शास्त्र गुरु के बताऐ हुए मार्ग पर चलकर अपना जीवन धन्य करें।अष्टान्हिका महापर्व के पांचवें दिन नंदीश्वरा विधान मुनि श्री ससंघ के सानिध्य में प्रातःकाल श्रीजी का अभिषेक शांतिधारा व भक्तिमय पूजन सम्पन्न हुआ।इस अवसर पर सभी समाजजन उपस्थित थे।

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