सिंगोली(निखिल रजनाती)। धर्म के माध्यम से जीवन के सभी कार्य सिद्ध हो सकते हैं।अर्थ को दान में और काम को वात्सल्य में बदल दो तो मोक्ष -पुरुषार्थ साधना सरल हो जायेगा।धर्म क्षेत्र में बैठकर कर्मों की निर्जरा की जा सकती है।धर्म पचपन में नहीं बचपन से ही प्रारंभ करना चाहिए।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से शिक्षा प्राप्त व वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य मुनि श्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 5 जुलाई बुधवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा कि पचपन की उम्र में तो गृहस्थी से उदासीनता आना चाहिए।सरकार ने भी कार्यमुक्त होने के लिए साठ वर्ष की उम्र निर्धारित की है परन्तु गृहस्थ ने अपनी गृहस्थी के कार्यमुक्त होने की कोई उम्र निर्धारित नहीं की है।भोगोपभोग की वस्तुओं की भी एक्सपाईरी तारीख होती है परंतु मनुष्य के इन्द्रिय विषयों की तारीख निश्चित नहीं हैं।आयु के प्रारंभ से लेक अन्त तक वह इन्द्रिय विषयों को भोगता रहता है।धर्म के द्वारा इन इन्द्रिय और मन पर नियंत्रण कर जीवन में चत्मकारिक परिवर्तन लाया जा सकता है।धर्म हमें कष्टों से संकटों से बचाता है।धर्म के प्रभाव से ही सर्प का हार तलवार की माला बन जाती,विष अमृत बन जाता है,धर्म युक्त अर्थ और काम परामार्थ की तथा शाश्वत सुख की प्राप्ति में महत्वपूर्ण योगदान है इसलिए जीवन में धर्म का महत्व कहा जाता है धर्म के द्वारा ही स्वर्गादि की सम्पदा और अरिहन्तादि का पद प्राप्त होता है।जिन शासन की महिमा अकथनिय है।इस अवसर पर मुनिश्री दर्शित सागर जी महाराज ने कहा कि मनुष्य जन्म लेता है कुछ दिन जीता है और मर जाता है लेकिन इस बीच वह ऐसा कर जाता है जिससे उसकी पहचान बन जाती है,मनुष्य अपनी कार्यकुशलता और रुचि के अनुसार संसार में कुच्छ महान कार्य करता है।अच्छे लोगों के साथ रहने से संस्कार अच्छे आएंगे और बुरे लोगों के साथ रहने पर गलत संगती आएगी। अच्छे लोगों के साथ हम जुड़ते हैं तो मोह,माया,राग,द्वेष,ईर्ष्या आदि बुराईयां से मुक्त हो जाते हैं। इस दौरान बिजोलियाँ व अन्य गांवों से पधारे समाजजनों ने मुनिश्री ससंघ को श्री फल अर्पित कर आशीर्वाद लिया।इस अवसर पर सभी समाजजन उपस्थित थे।