सिंगोली(निखिल रजनाती)। तीर्थंकर के जन्म के समय चारों ओर सुख-शान्ति का वातावरण हो जाता है।यह उनका अन्तिम जन्म है वह भी स्वपर कल्याण के लिए है।अतः स्वर्ग के देव भी पृथ्वी पर आकर जन्मोत्सव मनाते हैं।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से शिक्षा प्राप्त व वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य मुनि श्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने शुक्रवार को प्रातःकाल मन्दिर जी में प्रवचन के दौरान कहा कि संसारी प्राणी मृत्यु से डरता है और उसे जीतना चाहता है।यदि वह जन्म का अन्त कर दे तो मृत्यु का भी अन्त हो जा जाए।संसार में उसी का जन्म सार्थक माना जाता है जो संसार से भयभीत होकर मोक्ष सुख की अभिलाषा से समस्त परिग्रह का त्याग करता है।उसका जन्म धन्य कहा गया जो भगवत भक्ति में,शास्त्र चिन्तन में और दान में अपने समय का उपयोग करता है उसका ही जन्म श्रेष्ठ होता है जो दूसरों के दोषों को देखने में अन्धा है,परस्त्री रति में नपुंसक है,क्रोधादि शत्रुओं के प्रति क्रूर रहता है,कुमार्ग पर चलने में लंगड़ा है,झूठ बोलने में गूंगा है,अतिथि सत्कार में अग्रसर रहता है,अपने गुणों को प्रशंसा को सुनने में बहरा है जो भगवान के प्रति आस्थावान नहीं है।शास्त्र अध्ययन से विमुख रहता है,दान देने में कंजूस है और पाप कार्यो में मन लगाता है उसका जन्म निरर्थक होता है।इस अवसर पर मुनिश्री दर्शित सागर जी महाराज ने कहा कि बच्चों को अलोकिक शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षा व संस्कार देना जरूरी है।आज बच्चे बस्ते के बोझ तले दबे हुए हैं और धार्मिक संस्कार से दूर होते जा रहे है।छोटी उम्र में बच्चों को संस्कार दिए जाने चाहिए,स्कूलों में बच्चों को नैतिक शिक्षा सिखाई जाती है लेकिन बच्चों में धार्मिक संस्कार भी विकसित करना जरूरी है। बच्चों को पाठशाला में धार्मिक शिक्षा के साथ ज्ञान,ध्यान और संस्कार जरुरी है।मुनिश्री के सानिध्य में सुबह युवा वर्ग को ध्यान योग भी कराया जा रहा है जिसमें युवा वर्ग के सदस्य बढ़ चढ़ कर भाग ले रहे है।