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मौन संतोष और वैराग्य का प्रतीक है जो संयम का पोषण करता है - मुनिश्री सुप्रभ सागर

सिंगोली(निखिल रजनाती)। तीर्थंकर का जन्म से निर्मल शरीर होता है क्योंकि वे जो भी आहार में लेते है सब पचकर रक्तादि में परिवर्तित हो जाता है।उनके निहार नहीं होता है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से शिक्षा प्राप्त व वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमानसागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य मुनि श्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 08 जुलाई शनिवार को प्रातःकाल प्रवचन में कही।मुनि श्री ने कहा कि तीर्थकरों का रक्त श्वेत होता है।जब एक स्त्री के गर्भ में संतान आती है तो उसके प्रति वात्सल्य और ममत्व के कारण माँ के शरीर में दूध बनने लगता है तब प्राणी मात्र के प्रति वात्सल्य और करुणा का भाव तीर्थंकरों के मन में रहता है अत: उन‌का रक्त श्वेत होने में क्या आश्चर्य है।तीर्थंकरों के पास अतुल्य बल होता है वे चुटकी से हीरे जैसी कठोर पदार्थ को भी चुर्ण कर सकते है,परन्तु वे किसी भी प्राणी को मारने के लिए उसका प्रयोग नहीं करते हैं।तीर्थंकर दीक्षा लेते ही मौन धारण करते हैं जब तक कि केवलज्ञान न हो जाए।आचार्यों ने कहा कि शक्ति की वृद्धि के लिए मौन धारण करना चाहिए क्योंकि बहुत बोलने से शक्ति क्षीण होती है।आचार्यों ने श्रावकों के लिए भी सात स्थान पर मौन रहने के लिए कहा है।भोजन के समय,स्नान के समय,मल मूत्र त्याग के समय,मैथुन के समय,वयम के बाद जिनपूजादि आवश्यकों के समय और जहां पाप की सम्भावना हो वहाँ मौन से सभी कार्यों को साधा जा सकता है।मौन कहर को शान्त करता है,मौन संतोष और वैराग्य का प्रतीक है जो संयम का पोषण करता है।आचार्य कहते हैं हमेशा मौन रखना अच्छा परन्तु भोजन के समय मौन विशेष अच्छा है।इस अवसर पर मुनिश्री दर्शित सागर जी महाराज ने कहा कि संसार में सभी जीव सुख शांति चाहते हैं।इस भीषण विषमकाल में जिनेन्द्र भगवान की भक्ति ही सुख का साधन है,मात्र पूजन कर लेने से कार्य सिद्ध नहीं होते उसको मन,वचन,काय शुद्धि से उसका भाव समझो,अर्थ समझो जिससे निर्मलता है।अतःसंसार से पार होने के लिए भक्ति ही नोका है इस अवसर पर सभी समाजजन उपस्थित थे।

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