सिंगोली(निखिल रजनाती)। मानव जीवन संस्कारों के आधार पर ही विकसित होता है जैसे संस्कार बचपन से पड़ते है वह जीवन के अन्त समय तक कार्य करते हैं।बचपन कच्ची मिट्टी के समान होता है,उसे जैसा चाहे आकार दिया जा सकता है।बचपन में डाले गए संस्कार ही उस बालक के व्यक्तित्व का निर्माण करते है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से शिक्षा प्राप्त व वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य मुनि श्री दर्शित सागर जी महाराज ने 15 जुलाई शनिवार को धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि सत्संगति में रहकर प्राप्त संस्कार एक अच्छा धार्मिक सामायिक और देश के प्रति समर्पित व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। वर्तमान के दौर में बच्चों में धर्म के सामाजिक सहकार के संस्कार डालना अनिवार्य हो गए हैं क्योंकि आधुनिक साधनों के कारण उनका नैतिक आचरण पतन की ओर जा रहा है इसलिए धार्मिक, नैतिक पाठशालाओं की महती आवश्यकता है।पाठशालाओं के माध्यम से संस्कारित होकर बच्चे समाज व देश की सेवा का कार्य कर सकेंगे।इस दौरान मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने कहा कि पूज्य के गुणानुवाद,गुणस्मरण,स्तुति, स्तवन के साथ पूज्य के प्रति पूजक का पूर्ण समर्पण ही पूजा है।भगवान की पूजा आत्म शुद्धि की साधिका होती है जो एक बार वीतरागी भगवान के रूप और स्वरूप को निहार लेता है उसे किसी अन्य को देखने की आवश्यक नहीं पडती है।भगवान का वीतराग रूप ही भक्त को उनकी ओर आकर्षित करता है। आचार्यों ने भगवान की पूजा नित्य दिन करने के लिए कहा है। भगवान की पूजा क्यों की जाती है तो हमारे आचार्यों ने कहा है कि भगवान के समान गुणों की प्राप्ति हेतु भगवान की पूजा की जाती है।वीतरागी भगवान भक्त से कुछ लेते नहीं और कुछ देते नहीं है परन्तु वे दर्पण के समान आत्म स्वरूप का बोध करा देते है।दर्पण कुछ लेता नहीं न कुछ देता है पर वह चेहरे पर लगी कालिगा को दिखा देता है जिसे व्यक्ति स्वयं दूर करता हैं वैसे ही भगवान का स्वरूप हमें आत्मा में लगी कर्म कालिमा को देखा देता है जिसे व्यक्ति स्वयं के पुरुषार्थ से अलग करता है।इस अवसर पर सभी समाजजन उपस्थित थे।