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भगवान की प्रतिमा हमारे लिए आदर्श का प्रतीक है - मुनिश्री सुप्रभ सागर

सिंगोली(निखिल रजनाती)।भगवान की प्रतिमा निर्माण करने के लिए आचार्यों ने प्रतिमा विज्ञान का वर्णन किया है।उस अनुरूप जिस प्रतिमा का निर्माण होता है वही अतिशयकारी होती है।उसके दर्शन करने पर वहाँ से हटने की इच्छा ही नहीं होती है।प्रतिमा बनाने वाले शिल्पी को भी उसके निर्माण मे सावधानी रखनी चाहिए जितने सात्विक भावों से वह प्रतिमा का निर्माण करेगा,उतना ही प्रतिमा का सौन्दर्य निखरता है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से शिक्षा प्राप्त व वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य मुनि श्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 17 जुलाई सोमवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि उस प्रतिमा के दर्शनकर लाखों प्राणी धर्म का मार्ग प्राप्त कर लेते है।ऐसी प्रतिमा का दर्शन पूजन करने वालों को भी अपने परिणामों की शुद्धि के लिए निर्मल बुद्धि अर्थात् ईर्ष्या,अहंकार व राग-द्वेष से रहित होना चाहिए।स्वर्गों में देव लोग भी भगवान का अभिषेक,पूजन भक्तिभाव के साथ करते है।भगवान की प्रतिमा हमारे लिए आदर्श का प्रतीक है। एक व्यक्ति ने पूछा जब भगवान चारों ओर है तो प्रतिमाओं की क्या आवश्यकता है?उससे पूछा-हवा चारों ओर हैं फिर पंखे की आवश्यकता क्यों है।उसने कहा कि हवा को महसूस करने के लिए पंखे की जरूरत है उसी प्रकार भगवान चारों ओर है पर उन्हें महसूस करने के लिए उनकी प्रतिमाओं की आवश्यकता होती है।आचार्य कहते है कि जो चाँवल के दाने के बराबर भी भगवान की प्रतिमा बनवाकर मन्दिर में विराजमान करता है वह अनन्त गुणा पुण्य का लाभ प्राप्त करता है क्योंकि उस प्रतिमा के दर्शनकर कई भव्य जीव अपने आत्म कल्याण का मार्ग प्राप्त कर लेंगे।इस दौरान मुनिश्री दर्शित सागर जी महाराज ने कहा कि धर्म का आचरण यदि सही ढंग से नहीं किया जाता तो वह आडंबर बन कर रह जाता है इसका सही आचरण निश्चित ही व्यक्ति को मोक्ष मार्ग की ओर ले बढता है।धर्म के वास्तविक अर्थ को समझने वाले बहुत ही कम मिलते हैं।वर्तमान में व्यक्ति धर्म को समझना ही नहीं चाहता है।इस अवसर सभी समाजजन उपस्थित थे।

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