सिंगोली(निखिल रजनाती)।संसार में सभी जीव दुःखी है और भगवान की पूजा उन दुःखों से छुटने का मार्ग है।आचार्य कहते है कि संसार में कोई भी हो उसे कुछ न कुछ दुःख रहता है।नरक और पशुगति को दुःखों से भरी है।वहाँ पर निरन्तर दुःख सहन करने पड़ते है।मनुष्य भव में भी अनेक प्रकार के दुःख है।मनुष्य कोई तन से दुःखी है कोई मन से तो कोई धन से दुःखी है।किसी को इष्ट जन के वियोग दुःख है तो किसी को अनिष्ट का संयोग होने पर दुःख है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से शिक्षित व वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज से दिक्षीत मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 31 जुलाई सोमवार को प्रातः काल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि आचार्य कहते हैं, तीर्थंकर जैसे पुण्यशाली जीवों को भी कर्मों के कारण कष्ट उठाना पड़ा।देव पर्याय में श्री देव एक दूसरों को ऋद्दी ऐश्वर्य को देखकर दुःखी होते रहते हैं।इन सब दुःखों का अन्त भगवान की पूजा,गुरु सेवा और धर्म ग्रंथों के पारायण से ही हो सकता है।मुनिश्री ने आगे बताया कि भगवान के अभिषेक के बाद जो जल है,वह गंधोदक कहलाता है जो परम पवित्र होता है।उसे नेत्र व ललार पर धारण करने से पाप समूह नष्ट हो जाते हैं और आदरपूर्वक धारण किया हुआ गंधोदक संसार ताप को हरने वाला होता है।गृद्द पक्षी एक मुनिराज के चरणोदक के द्वारा सुनहरे पंख व रत्नमयी चोंच वाला हो गया फिर भगवान के चरणों का गंधोदक भव ताप का नाश करदे तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है।भगवान के चरणों से स्पर्श होकर आया वह गंधोदक सकारात्मक तथा मन्त्रों की ऊर्जा से भरा होता है इसलिए भगवान के गंधोदक को अपने नेत्रों ओर ललाट पर धारण करना चाहिए तथा घर में पवित्र स्थान पर रखना चाहिए।इस दौरान मुनि श्री दर्शित सागर जी महाराज ने कहा कि सज्जनता हर स्थान पर पूज्यता का प्राप्त होती है।सज्जन पुरुष सर्वजनहिताय सर्वजन सुखाय के सिद्धान्त का अनुसरण करते है। सज्जन चन्द्रमा की किरणों के समान सबको शीतलता प्रदान करते हैं।सज्जनता ही व्यक्ति को महान बनाती है।सज्जन स्वयं कष्ट में रहकर दूसरों के कष्टों को दूर करने का प्रयत्न करता है।