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भगवान के अभिषेक के बाद प्राप्त जल गन्धोदक बन जाता है - मुनिश्री सुप्रभ सागर

सिंगोली(निखिल रजनाती)।पूर्ण समर्पण के द्वारा ही व्यक्ति इष्ट की प्राप्ति कर सकता है।भगवान के चरणों में अपने आपको समर्पित कर दो तो आप भी भगवान बन जाओगे।हमारा समर्पण पूर्ण नहीं होता है इसलिए भगवत्सता की प्राप्ति नहीं हो रही है।भगवान के अभिषेक के बाद प्राप्त जल गन्धोदक बन जाता है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से शिक्षीत व वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज से दिक्षीत मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 1 अगस्त मंगलवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि और वह गंधोदक मुक्तिलक्ष्मी रूपी स्त्री से पाणिग्रहण में कारण बनता है।जिस प्रकार मिट्टी में डाला गया बीज जल मिलने पर अंकुरित हो जाता है उसी प्रकार भगवान के गंधोदक को लगाने पर जीवन में पुण्य का अंकुरण होने लगता है।अभिषेक द्वारा प्राप्त गंधोदक देवेन्द्र और चक्रवर्ती के राज्यभिषेक को प्राप्त कराने वाला है तथा वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित रूपी लता को बढ़ाने वाला होता है।आचार्यों ने पुराणग्रंथों में गन्धोदक की अचिन्त्य महिमा कही है।मैनासुन्दरी ने भगवान के अभिषेक के गंधोदक के द्वारा अपने कोढी पति श्रीपाल का कोढ दूर कर दिया था।गंधोदक के द्वारा यश,धन,सम्पदा और विजय की प्राप्ति होती है।कुछ लोग कहते है कि भगवान के स्नान का जल ग्रहण करने से क्या होता है उन्हें जवाब देते हुए आचार्य कहते है कि भगवान के स्नान का जल गंधोदक कहलाता है और वह पवित्र माना जाता है,उसे मस्तक पर चढ़ाते है परन्तु सामान्य मनुष्य के स्नान जल नाली में जाता है,वह निर्मल स्वच्छत जल को भी अपवित्र  बना देता है।उसे कोई भी मस्तक पर नहीं चढाता है।उसे तो‌ कोई स्पर्श भी नहीं करता है।इस दौरान मुनिश्री दर्शितसागर जी महाराज ने कहा कि आचार्यों ने पराधीनता को नरक कहा है।कोई भी किसी के अधीन नहीं रहना चाहता है।पराधीनता दुःख का कारण है।किसी पक्षी को अच्छे सोने के पिंजडे में रख दो,उसे अच्छा खाने को दे दो फिर भी वह उस पिंजडे से बाहर आने के लिए झटपटाता है।लौकिक जीवन में व्यक्ति यदि किसी के अधीन है,उसे सब कुछ सुविधा दी जा रही है फिर भी प्रसन्न नहीं हो सकता है क्योंकि पराधीनता किसी को भी स्वीकार नहीं होती है।जैसे लौकिक जीवन में इसरों की अधीनता में झटपटाहट होती है वैसे ही अध्यात्मिक जीवन में कर्मों की अधीनता में झटपटाहट होनी चाहिए परन्तु इस अनादिकालीन पराधीनता में कोई भी छूटने का सच्चा पुरुषार्थ नहीं कर रहा है।अब अवसर मिला है कि कर्मों की पराधीनता तोड़ने के लिए समीचीन पुरुषार्थ कर ले।

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