logo

राग भाव ही संसार के दुःखों का कारण है - मुनिश्री सुप्रभ सागर

सिंगोली(निखिल रजनाती)।संसार में परिभ्रमण करते-करते यह आत्मा थक गई है,अब इसे विश्राम की आवश्यकता है और वह विश्राम सिद्धावस्था में ही प्राप्त हो सकता है।जब व्यक्ति को थकान का अनुभव होता है तो वह सब कार्यो को छोड़कर अपने घर की ओर जाता है उसे अपने घर की याद आने लगती है।उसी प्रकार अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करने के बाद भी अभी तक हमें निजघर अर्थात्त आत्मा की याद नहीं आ रही है।इसका मतलब यह हुआ कि अभी संसार और बाकी है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से शिक्षित व वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य मुनि श्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 9 अगस्त बुधवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि संसार का मुख्य कारण राग- भाव है।आचार्य कहते है कि राग भाव आसानी से नहीं छूटता है।संसारी प्राणी राग द्वेष से रहित है तथा वह राग भाव ही संसार के दुःखों का कारण बनता है।आचार्यों ने कहा है कि राग सबसे खतरनाक होता है,द्वेष की अपेक्षा।राग तो अच्छे अच्छे बुद्धिमान को भी भ्रमित कर देता है।बलदेवों जैसे समझदार भी राग के कारण अर्धचक्रवर्तियों के शव को लेकर छह-छह माह तक  घूमते है उसे स्नान और वस्त्राभूषण पहनाते है,उसे भोजन खिलाने की चेष्ठा करते है और इसी राग के कारण हम सब भी संसार में घूम रहे है।भगवान की वीतराग मुख के दर्शन वन्दन और पूजन कर उस राग को कुछ कम किया जा सकता है।इस दौरान मुनिश्री दर्शित सागर जी महाराज ने कहा कि आचार्यों ने अनर्थ अर्थात् अप्रयोजन भूत कार्यों का फल मन की व्याकुलता कहा है।अनर्थ कार्य करने पर मन व्यथित हो जाता है और व्यथित मन के कारण नये अनर्थ हो जाते हैं।व्यथित मन के कारण ही स्वस्थ व्यक्ति भी अपने आपको बीमार मानने लगता है इसलिए अनर्थ के कार्यों से बचो।आचार्यों ने इसलिए श्रावकों के लिए अर्थदण्ड त्याग व्रत कहा है।

Top