सिंगोली(माधवीराजे)।आचार्यों ने श्रावकों के लिए षडावश्यक कहे, उनमें पहला देव पूजा कहा है। देव किससे कहते है,देव बनने का क्या उपाय है,इसका वर्णन भी आचार्यों ने किया है।तीर्थंकर बनने के लिए पुण्य चाहिए और उससे पूर्व सोलह कारण भावना भाना अनिवार्य है।दर्शन,विशुद्धि आदि सोलह भावनाएँ तीर्थंकरत्व हेतु आवश्यक है।भावना केवली-श्रुत केवली के चरण सान्निध्य में बैठकर ही फलीभूत होती है।सत्संग का अपने आप में अलग प्रभाव होता है।सत्संगति से जीवन में उन्नति और कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।इससे विपरीत कुसंगति से जीवत पतन और दुःखों को प्राप्त होता है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 21 नवंबर मंगलवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि कर्म प्रकृतियों में तीर्थंकर नाम प्रकृति सबसे पुण्यशाली प्रकृति है जो दुर्लभतम कही जाती है।यह एक मात्र ऐसी कर्म प्रकृति है जो संसार का अन्त कराने वाली है।शेष कर्म संसार को बढाने वाले हैं।सोलह कारण भावनाओं में पहली दर्शन विशुद्धि भावना कही गई है अर्थात सात तत्वों पर सच्चा श्रद्धान करना, शंका आदि आठ दोष सहित 25 मलों से रहित और निशंकित आदि आठ अंगों सहित श्रद्धान् रखता सम्यग्दर्शन है।उसके साथ मन,वचन,काय की निर्मलता सदैव बनी रहना ही दर्शन,विशुद्धि भावना है।आचार्य कहते है कि भावना ही भव नाशनी होती है। अच्छी भावना पुण्य का और बुरी भावना पाप का अर्जन कराने वाली होती है।मन में बुरे विचार नहीं लाना,राग-द्वेष का चिन्तन नहीं करना,पाप और कषाय के परिणाम नहीं लाना मन की निर्मलता है।वचनों से हितमित प्रिय बोलना बुरे शब्दों का उच्चारण नहीं करना,मौन धारण करना आगमानुकूल बोलना ही वचनों की निर्मलता है तथा काय से पाप की चेष्ठा नहीं करना,धर्म की क्रियाएँ करना काय की निर्मलता है।यह मन,वचन,काय की निर्मलता ही सम्यग्दर्शन को विशुद्ध बनाने वाली है।कार्यक्रम के दौरान चातुर्मास में चार माह तक मुनिश्री के पास रहकर सेवा देने वाले पारस साकुण्या का चातुर्मास कमेटी द्वारा तिलक, माला पहनाते हुए स्मृति चिन्ह देकर स्वागत किया गया वहीं आहरचर्या व्यवस्था,आवास व्यवस्था,भोजन व्यवस्था,मंच व्यवस्था जंगल व्यवस्था आदि में जिसने भी सहयोग किया उन सभी का चातुर्मास कमेटी द्वारा स्वागत करते हुए आभार व्यक्त किया गया।इस अवसर सभी समाजजन उपस्थित थे।