सिंगोली(माधवीराजे)।सम्यग्दर्शन की निर्मलता के साथ मन-वचन-काय के परिणामों की स्थिरता और पवित्रता को निरन्तर बनाये रखने के लिए अन्तरंग पुरुषार्थ के साथ बाह्य आचरण भी वैसा ही चाहिए।सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के बाद बाहर में प्रशम संवेग,अनुकम्पा तथा आस्तिक्य रूप चिह्न दिखते हैं जो सम्यग्दर्शन को निर्मल बनाने में सहयोग प्रदान करते हैं।पंचेन्द्रियों के विषयों में तथा क्रोधादि कषाय के परिणामों में शिथिलमन का होना ही प्रशम भाव है।कषायों का शमन कर देना,पंचेन्द्रियों के विषयों के प्रति उदासीन होने का नाम प्रशम भाव है।पच्च परावर्तन रूप संसार से जिसको भय उत्पन्न हुआ या धर्म और धर्म के फूल में हर्ष होना यह संवेग भावना है। संसार,शरीर और भोगों से विरक्ति ही संवेग भावना है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 22 नवंबर बुधवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि तृषातुर,क्षुधातुर अथवा अभावग्रस्त दुःखी जीवों को देखकर मन में दुःख आना,करुणा भाव से उनके कष्टों को दूर करने का भाव रखना अनुकम्पा कही गई है।सर्वज्ञ वीतरागी देव द्वारा प्रणीत जीवाडि तत्वों में रुचि होना आस्तिक्य गुण कहा गया है।ये चारों भाव सम्यग्दृष्टि में निर्मलता को बढाने वाले होते हैं। सम्यग्दर्शन में कषायों की मन्दता आने पर ही निर्मलता आती है।