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व्रतों से डरने वाला व्यक्ति कभी भी सुख की प्राप्ति नहीं कर सकता है - मुनिश्री सुप्रभ सागर

सिंगोली(माधवीराजे)।तीर्थंकरत्व जैसी पुण्य प्रकृति को बांधने वाला नम्रवृत्ति वाला ही हो सकता है।जब व्यक्ति में नम्रवृत्ति आ जाती है तो वह अपने द्वारा ग्रहण व्रतों का अतिचार रहित पालन कर सकता है।व्रतों के निरविचार पालन करने का नाम निरविचार शीलव्रत भावना है।आज वर्तमान में व्यक्ति व्रतों के नाम से घबराता है इसलिए गुरुओं के पास भी जाने से डरता है।आचार्य कहते हैं कि व्रतों से डरने वाला व्यक्ति कभी भी सुख की प्राप्ति नहीं कर सकता है।व्रतों से डरता है पर संसार के दुःखों से नहीं डरता है। यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 24 नवंबर शुक्रवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि शील शब्द का अर्थ स्वाभाव होता है।अपने आत्मिक स्तभाव का पालन करना,रक्षा करना और उन्हें प्रकट करने के लिए ही निरतिचार शीलव्रत भावना व्रतों की रक्षा है।आचार्यों ने श्रावकों के लिए 7 शील कहे है और महाव्रति मुनियों को व्रतों की रक्षा हेतु 5 समिति और 3 गुप्ति रूप अष्ट प्रवचन मातका कही है। ये मुनियों का लालन-पालन और रक्षा एक माँ की तरह करती है इसलिए इन्हें अष्ट प्रवचन मातृका कहा जाता है।शील से रहित आत्मा का संसार परिभ्रमण समाप्त नहीं होता है।शील का अर्थ आचार्यों ने ब्रह्मचर्य भी कहा है।ब्रह्म में रमण करना ही ब्रहाचर्य है और यही शील धर्म कहा है इसका निरविचार पालन करने से तीर्थंकर नाम कर्म रूप महापुण्य का आसव-बध होता है।

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