सिंगोली(माधवीराजे)।अच्छे-बुरे का ज्ञान,स्वपर विवेक,हिताहित का ज्ञान निरन्तर बना रहे इसी का नाम अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है। अभीक्ष्ण का अर्थ होता है निरन्तर,अविरल।जब आत्मा निरन्तर स्वपर प्रकाश की ज्ञान की आराधना में लग जाते है तब उसे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना कहते हैं।ज्ञान मिध्यात्व अंधकार से छुड़ाकर ज्ञान रूपी निर्मल प्रकाश से मिलन करा देता है। आचार्य कहते हैं स्वात्मानं पश्यति यःश:पण्डित अर्थात जो अपने आपको,अपनी आत्म को जानता है या अनुभव करता है वही पण्डित है ज्ञानी है।ज्ञान हमारी निजी सम्पदा है उसे बाहर से जानना नहीं पड़ता है वह अपने आपसे भी नहीं प्रकट होता है उसे उद्घाटित करना पड़ेगा।निरन्तर ज्ञानाभ्यास का अर्थ यह नहीं है कि तोते के समान रटन लगाओ। जिस प्रकार भोजन चबाकर खाने पर ही अच्छे से पचता है और शरीर को पुष्ट करता है उसी प्रकार ज्ञान का सही प्रयोग करने पर ही वह अच्छे से समझ आता है और आत्मा को पुष्ट करता है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 26 नवंबर रविवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि जो व्यक्ति निरन्तर ज्ञानाभ्यास में लगा रहता है वही तीर्थंकर नाम कर्म प्रकृति का आसव करता है। निरन्तर ज्ञान साधना से आत्म कल्याण हेतु हेयोपादेय का ज्ञान हो सकता है।जिस प्रकार भोजन का अजीर्ण वमन के रूप में बाहर आता है उसी प्रकार ज्ञान का अजीर्ण ज्ञान के अहंकार के रुप में बाहर आता है इसीलिए ज्ञान का पाचन सही होना आवश्यक है तभी तीर्थंकर जैसे महान पुण्य प्रकृति का आस्रव हो सकता है। इस अवसर मंगलाचरण मधु बागडिया व चित्र अनावरण,दीप प्रज्वलन,पाद प्रक्षालन,शास्त्र दान मुनि श्री दर्शित सागर जी महाराज के ग्रहस्थ जीवन के बड़े सुपुत्र श्रेयांस जैन बड़वाह परिवार ने किया।इस अवसर पर सभी समाजजन उपस्थित थे।