सिंगोली(माधवीराजे)।द्रव्य,क्षेग, काल,भाव,बल आदि बातों का विचार करके वस्तु और वस्तु के प्रति ममत्व को छोड़ना यथाशक्ति त्याग कहलाता है।त्याग करते समय अहंकार या विषाद का भाव नहीं होना चाहिए।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 28 नवंबर मंगलवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि त्याग अत्यन्त सहज भाव से होना चाहिए।जैसे अपने घर को साफ-सुथरा और सुन्दर बनाने के लिए कूड़ा कचरा बाहर सहज भाव से फेंक आते हैं।उसे फेंकते समय मन में संक्लेश या अहंकार का भाव नहीं आता है।त्याग करने के बाद उस ओर देखना भी नहीं चाहिए जैसे मल विसर्जन करने के बाद उस ओर पलट कर भी नहीं देखते हैं।आचार्य कहते है कि क्या-क्या छोड़ा और कितना छोड़ा यह महत्त्वपूर्ण नहीं है इससे अधिक महत्वपूर्ण कैसे छोड़ा ? त्याग करने के बाद खेदभाव नहीं अन्तरङ्ग से त्याग होना चाहिए। चक्रवर्ती छह खण्ड 96 हजार रानियां आदि वैभव को भी क्षणभर में छोड़कर मुनि बन जाते है वे उस धन सम्पदा को नश्वान, झगडे को जड़ और संसार के लिए हथकड़ी के समान है जिसे पहनाये जाने पर लोग प्रसन्न होते हैं परन्तु दुःख की खान मानकर सड़े तिनके के समान त्याग देते है।आचार्यों ने कहा शक्तितस्र का अर्थ अति नहीं करना चाहिए क्योंकि अति इति का प्रारंभ है। अति किसी भी वस्तु या कार्य की हो,वह हो पतन का दुःख का ही कारण होता है।जल की अति प्रलय ला देती है,भोजन की अति रोगों को और काम की अति मत्यु को लाती है उसी प्रकार त्याग की अति सक्लेश,शान्ति में और साधना में बाधक होती है।शक्ति से अधिकता आवेग,आवेश में होती है इसलिए आचार्यों ने शक्तितस्त्याग कहा है,त्याग से धबराओ मत और त्याग पर इतराओ भी मत।इस अवसर पर सभी समाजजन उपस्थित थे।