logo

शरीर की शुद्धि का ध्यान रखने की अपेक्षा मन की शुद्धि का ध्यान रखो -  मुनिश्री सुप्रभ सागर

सिंगोली(माधवीराजे)।साधना के बाहरी बाधक कारणों को दूर करने के लिए आचार्यों ने यथाशक्ति त्याग कहा और साधना के आंतरिक बाधक कारणों को दूर करने के लिए यथाशक्ति तप कहा है।जिस प्रकार तपन के द्वारा खट्टा,कड़क और हरा आम मीठा, कोमल और पीला हो जाता है उसी प्रकार तप की तपन से आत्मा भी मीठा कोमल और शुद्ध वर्णवाला हो जाता है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 30 नवंबर गुरुवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि मानव का संपूर्ण जीवन इच्छाओं की पूर्ति में बीत जाता है फिर भी इच्छाओं का अन्त नहीं होता है इस कारण ही आत्मा की अन्तरङ्ग शक्ति समाप्त हो रही हैं।आचार्य कहते हैं कि इच्छाओं की पूर्ति करने की अपेक्षा उसे परिष्कृत करो,उसे सही दिशा की ओर मोड़ दो।इच्छाओं को जीतना चाहते हैं तो इच्छाओं का वर्गीकरण करो।अनावश्यक इच्छाओं,असंभव इच्छाओं की पूर्ति में अपना समय,शक्ति और सम्पदा का व्यर्थ व्यय न करें। ऐसी इच्छाओं की पूर्ति करने से बचें जो हमारे पतन का कारण बने।आचार्यों ने तप दो प्रकार का कहा है-तामसिक तप तथा सात्विक तप।जिसे सांसारिक पूर्ति हेतु किया जाता है जो लोकेषणा, पुगेषणा और वितेषणा मंग साधना हेतु करते हैं वह तामसिक तप है।जिसमें कर्मक्षय की भावना रहती है वह सात्विक तप कहलाता है।शरीर की शुद्धि का ध्यान रखने की अपेक्षा मन की शुद्धि ध्यान रखो और वह तप द्वारा ही होता है।

Top