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पुण्य प्रकृति के लिए स्वकल्याण के साथ परकल्याण की भावना रखना आवश्यक है - मुनिश्री सुप्रभ सागर

सिंगोली(माधवीराजे)।लौकिक उपकार करने वाले बहुत है परन्तु अपना आत्मकल्याण करते हुए प्राणी मात्र के कल्याण की भावना रखने वाले साधुजन अल्प है।ऐसे साधु-जनों की तपस्या की सराहना करना,उनकी तपस्या में सहयोगी बनना ही साधु समाधि भावना है।तीर्थंकर नाम कर्म जैसी पुण्य प्रकृति के लिए स्वकल्याण के साथ परकल्याण की भावना रखना आवश्यक है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 1 दिसम्बर शुक्रवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा कि व्रतों से सम्पन्न तपस्या में लीन उपकारी मुनिराजों पर किसी कारण से विध्न आ जाता है तो उसका शमन करना साधु समाधि भावना है।सहयोग देने वाले को यह ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि साधक की साधना में जिससे कमी न आए, साधन बढ जाए ऐसा निर्दोष उपाय करना चाहिए।आचार्यों ने कहा है कि असुविधा में भी सुविधा का अनुभव हो,समता बनी रहे वास्तविक साधना यही है।साधक को अपने व्रतों की सुरक्षा की चिन्ता रखना चाहिए।जैसे भाण्डार में आग लगने पर पहले उसे बुझाने का प्रयास करते हैं नहीं बुझने पर उसमें से बहुमूल्य सामग्री निकाल कर सुरक्षित करते है।उसी प्रकार साधक शरीर में आधि-व्याधि आने पर उसे दूर करने का पुरुषार्थ करता है।नहीं ठीक होने पर व्रतों की रक्षा का पुरुषार्थ करता है।आचार्य कहते हैं शरीर जाए तो जाए व्रतों की रक्षा पहले करना वहीं ऐलक श्री क्षीरसागर जी महाराज ने भी धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा कि श्रावक अपने आवश्यक कार्यों को करने की ललक रखता है तो उसे सातिशय पुण्य का अर्जन होता है।जो भगवान की पूजन के लिए लालायित रखता है वह उस गरीब के समान है जो टूटी झोपडी में ठंड के दिनों में सूर्य के दर्शन के लिए लालायित रहता है उसी प्रकार भव्य जीव जिन सूर्य के दर्शन के लिए लालायित रहता है। संतों का दर्शन और मिलन कठिन होता है परंतु जब भी मिलते हैं तो वह आत्मियता बढ़ाने वाला होता है।इस अवसर पर सभी समाजजन उपस्थित थे।

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