सिंगोली(माधवीराजे)।भक्ति मुक्ति दिलाने में सहायक होती है परन्तु वर्तमान में जो भक्ति हो रही है उसे देखकर कोई भी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि अधिकांश लोग सोचते है कि भक्ति तो भगवान को प्रसन्न करने के लिए है और भगवान प्रसन्न हो जायेंगे तो हमारे सब काम सरल हो जायेंगे।कुछ लोग मन बहलाने हेतु या कुछ लोग मनोरंजन हेतु भक्ति का सहारा लेते हैं।यह बात नगर में विराजमान मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 6 दिसंबर बुधवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि आचार्य कहते है कि भगवान लो वीतरागी होते हैं उन्हें पूजा-स्तुति से अथवा निन्दा से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि उनकी पूजा से पूजक के मन का पाप धुल जाता है और मन निर्मल हो जाता है।भक्ति की इसी श्रृंखला में आचार्यों ने प्रवचन भक्ति भावना कही है।प्रवचन अर्थात प्रकृष्ट या श्रेष्ठ वचन। संसार में तीन ऐसे वक्ता है जिनके वचन प्रकृष्ट है वे है-एक तो तीर्थकर या केवली,दूसरे है गणधर परमेष्ठी या श्रुत केवली तथा तीसरे हैं जिन्हें परम्परा से ज्ञान प्राप्त हुआ ऐसे आचार्य परमेष्ठी।आचार्य कहते है कि तीर्थंकर दिव्य ध्वनि के द्वारा गणधर उसी ध्वनि को द्वादशांग रूप रचना करते हैं।उनके बाद ज्ञान के अनुरूप आचार्य उसकी व्याख्या करते हैं।वाणी एक ही है वह बर्फ के टुकड़े की तरह एक हाथ से दूसरे हाथ में जाते-जाते भले ही छोटा हो जाए पर रहता तो बर्फ ही उसी प्रकार भगवान की वाणी भी भगवान से गणधर परमेष्ठी के पास तो अगली बार आचार्य परमेष्ठी के पास होते होते मात्र कुछ ही अंग शेष रह गया है। वाणी के आकार में अन्तर आ गया परन्तु गुणवत्ता वही है। प्रवचन की भक्ति करने से प्रत्येक आत्मा महान बन सकती है यह जाना जाता है।वैचारिक भिन्नता होने पर भी अनेकान्त और स्याद्वाद के द्वारा कलह नहीं होती है तथा अहिंसा धर्म का ज्ञान-भान रहता है।संसारी प्राणी जिनवाणी की भक्ति से रहित होने पर नकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है और यह आत्म रंजन की प्रेरणा देकर मनोरंजन से दूर करती है।