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स्पेशल स्टोरी ईश्वर को न बनाए बिक्री का मोहरा, होता है अपमान

नीमच। प्रतिस्पर्धा के इस युग में, विक्रय की जाने वाली वस्तुओं के संदर्भ में,जगत अपने सृजनकर्ता, सांस्कृतिक धरोहर को भूल गया है। वह ईश्वर के साथ ऐसा खिलवाड़ कर रहा है मानो, वह परमात्मा को ही अपना मोहरा बना रहा है।देखने में आया है कि विक्रय की जाने वाली वस्तुओं के ट्रेडमार्क के रुप में भगवान के चित्र आदि मोनो के रुप में इस्तेमान कर अपनी बिक्री को बढ़ावा देने का प्रयास किया जा रहा है। जो कि सरासर गलत है,ओर उपयोग के बाद उक्त वस्तु के पैकेट जिस पर ईश्वर के चित्र बने को सड़क या कूड़ा दान में फेंक देते है जिससे उनका अपमान होता है।इस सन्दर्भ में लेक्चरार डा प्रति तिवारी ने बताया कि लोग इस प्रतिस्पर्धा में यह भूल जाते हैं कि जिसने हमें इस धरती पर बनाया है,उनके साथ हम खिलवाड़ कर रहे है हम सनातनी है क्या हमारा ईश्वर के लिये यही प्रेम है ! सच बताए तो हमारा सृष्टि कर्ता गूंगा, बहरा तो नहीं है वरन वह क्षमाशील अवश्य है तभी तो अपने प्रतिबिंब को इस स्थिती में देखकर भी मौन है। वह अपनी संतानों को क्षमा करता जाता है क्योंकि ईश्वर और संतान का रिश्ता ही कुछ ऐसा है। संतान तो कपुत हो सकती है पर ईश्वर जो उसे धरती पर लाए है वे कभी नहीं।हां, इतना अवश्य है कि, जब पाप अत्यधिक बढ़ने लगते हैं तो ईश्वर अपनी संतान को सबक सिखाने का अधिकार रखता है, पर क्षमा भी एक सीमा तक किया जा सकता है और जब अनुचित कार्य सीमा से बाहर हो जाता है तब इसका दण्ड हम सभी को भुगतना पड़ सकता है । वस्तुतः दण्ड क्रेता और विक्रेता दोनो ही पाने का अधिकार हैं। क्योंकि हमारे द्वारा खरीदी गई वस्तुओं के पेकेट से सामग्री तो निकाल ली जाती है किन्तु पैकेट कूड़े कचरे में फेंक दिया जाता है अथवा पैरों में रौंद दिया जाता है। महाभारत के प्रसंग में, जब शिशुपाल राजसूय यज्ञ के दौरान पैर पुजाई के संदर्भ को लेकर श्री कृष्ण को लगातार अपशब्द कह रहा होता है, तब श्री कृष्ण उसे सचेत करते हुए उसकी सौ गलती माफ कर देते हैं किन्तु इसके बाद भी जब वह नहीं मानता तब श्री कृष्ण सुदर्शन चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर देते हैं। ऐसा ही कुछ हमारे साथ प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रुप में घटित हो सकता है । यह प्रसंग यहाँ उद्घाटित करने का यही उद्देश्य है कि, किसी भी प्रकार की वस्तुओं के कवर इत्यादि पर भगवान के फोटो, चिन्ह आदि का उपयोग नहीं किया जाए । बल्कि इसे पूरी तरह से बंद किया जाए क्योंकि इस तरह का अनुचित कार्य करके हम अपनी मूर्खता का परिचय देते हुए सांस्कृतिक मुल्यों की बात करते हैं तथा दूसरी ओर ईश्वरीय प्रेम को दर्शातेहैं यह आडम्बर है । सच तो यह है कि लोग न तो ईश्वर को समझते है और ना ही उनके नाम की सार्थकता को । यदि जानते भी हैं तो ईश्वर के प्रति उनकी कोई आस्था नहीं है। ईश्वर से बड़ी शक्ति ईश्वर के नाम में है, तभी तो राम नाम रूपी पत्थर समुद्र में तैरने लगते हैं। रामायण के इस प्रसंग से हम सभी भली-भाँति परिचित हैं, फिर भी शाश्वत को नजरअदांज करना हमारी प्रकृति है। त्रेता युग में लंका पर चढ़ाई करने के उद्देश्य से सेतु का निर्माण करने के लिये वानर सेना ने राम नाम लिख कर पत्थरों को समुद्र में डालना शुरु किया तो सभी पत्थर तैर गए और सेतु तैयार हो गया। जब प्रभु के नाम में इतनी शक्ति है तो, ईश्वर में कितनी शक्ति होगी! इसका अनुमान लगाना कठिन ही नही वरन् असंभव है। प्रभु को पहचाने, उनकी शक्ति को जाने और विज्ञापन आदि के रुप में भगवान के चित्रों चिन्हों आदि के प्रयोग करना बंद करें । आस्था को जीवंत रखें। शुद्धता ही विश्वास का आधार है । हमें प्रभु का गुणगान करते हुए शुद्ध भाव से अपने कर्म को करना चाहिये। तभी हमारा आर्थिक ही नही वरन मानसीक विकास भी होगा।तुलसीदास जी की पंक्तियां बड़ी प्रेरणादायी हैं, जो ईश्वर रुपी ज्ञान से हमारे अज्ञान रुपी अंधकार को मिटाने में चरितार्थ हो रही हैं,राम-नाम-मनि-दीप धरु, जीह देहरी द्वार ।
तुलसी भीतर बाहिरौ, जो चाहसि उजियार।

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