सिंगोली(निखिल रजनाती)। आत्मा के सम्यक दर्शन गुण में तीन मूढता दोष उत्पन्न करती है। मूढता अर्थात् अज्ञानता और आचार्य कहते है कि अशिक्षा अर्थात् अनपढपना हानिकार नहीं है,जितनी अज्ञानता।अज्ञानी व्यक्ति बिना समझे जाने मात्र देखा देखी अनुसरण करता है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से शिक्षित व वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य मुनि श्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 6 अगस्त रविवार को प्रातःकाल मन्दिर जी में धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि आचार्यों ने ग्रंथों में धर्म मानकर रागी-द्वेषी संग्रंथ देव को देवाधिदेव मानकर पूजना देवमूढता कहा है।जो स्वयं ही अभी दुःखी है,कष्ट का अनुभव कर रहे है वे क्या दूसरों के कष्ट या दुःख दूर कर पायेंगे।धर्म बुद्धि से रेत का ढेर लगाना,पत्थरों को एक दूसरे पर जमाना लोक मूढता कही गई है।संसारी प्राणी चमत्कार और अंधविश्वास की ओर शीघ्र आकर्षित होते हैं।कई लोग मात्र चमत्कार को नमस्कार करते हैं।आचार्य कहते है कि प्रतिमा में कही चमत्कार नहीं होता है,चमत्कार तो व्यक्ति की भक्ति और समर्पण में होता है।पत्थरों को जमाने से या रेत का ढेर लगाने से व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन आता तो वे पहाड़ और रेत के टीलों पर रहने वाले पशुओं का जीवन कब से परिवर्तित हो गया होता।नदी में स्नान करने मात्र से पाप धुल जाते तो नदी में रहने वाले मछली,कछुआ,मेंढक आदि जानवर कब से संसार से मुक्त हो गए होते इसलिए व्यक्ति को इन मूढताओं को त्यागकर सच्ची श्रद्धा से प्रभु भक्ति करना चाहिए।इस दौरान मुनिश्री दर्शित सागर जी महाराज ने कहा कि जीवन में शान्ति प्राप्ति के लिए यहाँ वहाँ भटकने की आवश्यकता नहीं,वह उसके प्रत्येक जीव के अन्दर ही है।श्रद्धापूर्वक की गई भक्ति शान्ति प्रदान करने वाली होती है।व्यक्ति के जीवन में उसकी कथनी और करनी में अन्तर होता है इसलिए उसे सुख- शान्ति नहीं मिल पाती है।व्यक्ति ने पक्षी की तरह आकाश में उडना तथा पानी में मछली की तरह तैरना तो सीख लिया पर उसने अभी मानवता नहीं सीखी।इस कारण ही वह संसार में भटक रहा है और अशान्ति का अनुभव कर रहा है।इस अवसर पर सिंगोली के अलावा बोराव,महुआ,थडोद,धनगाँव, झांतला,कांकरियातलाई,जबलपुर सहित अन्य जगहों के समाजजन उपस्थित थे।