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भारतीय संस्कृति में चरणों की पूजा आचरण का प्रतीक है - मुनिश्री सुप्रभ सागर

सिंगोली(निखिल रजनाती)।भगवान् के चरण मंगलकारी है क्योंकि उन्होंने मंगलमय पद को प्राप्त कर लिया है।उन मंगलमय चरणों की सेवा से भक्त का जीवन भी मंगलमय हो जाता है।भारतीय संस्कृति में चरणों की पूजा की परम्परा है क्योंकि चरण आचरण का प्रतीक है।आचरण अर्थात सत्पथ पर चलना और पथ पर चलने का कार्य चरण ही करते है।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 17 अगस्त गुरूवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि भगवान् के चरणों की रज चन्दन के समान मस्तक पर चढ़ाई जाती है जो मंगलकारी होती है।अरिहन्त परमेष्ठी मंगल स्वरूप है क्योंकि उन्होंने जीवन को अमंगलमय बनाने वाले दुष्ट कर्मों को नष्ट कर दिया और वे समस्त दोषों से रहित हो गए।सिद्ध भगवान् भी मंगल करने वाले है क्योंकि उन्होंने समस्त सिद्धियों को प्राप्त कर लिया है।आचार्य परमेष्ठी स्वयं आचरण करते है और शिष्यों से आचरण का पालन करवाते है।वे दीक्षा, प्रायश्चित देकर शिष्यों को शुद्ध करते हैं,उन्हें मंगल रूप बनाते है। उपाध्याय परमेष्ठी स्वयं पढ़ते हैं और ज्ञान पिपाषुओं को ज्ञानामृत का पान कराते हैं इसलिए वे मंगलकारी है।साधु परमेष्ठी बनकर ही सिद्धावस्था की प्राप्ति हो सकती है,मंगल को प्राप्त कराने वाला वह साधन भी मंगलमय ही होगा।आचार्य करते हैं कि पूर्ण ज्ञान प्राप्त किए बिना जो प्रयोग करता है या आधा-अधूरा ज्ञान प्राप्त कर प्रयोग करने वाला कभी भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है।मंगलकारी पंच परमेष्ठी की शरण को प्राप्त भव्यजीव भी मंगलकारी बन जाता है।इस दौरान मुनिश्री दर्शित सागर जी महाराज ने कहा कि गुप्त रीति से किया गया पाप व्यक्ति को मृत्युपर्यन्त कांटे की समान-चुभता रहता है।वह कार्य व्यक्ति को शंकालु बना देता है।निरन्तर वह व्यक्ति भयभीत रहता है।ऐसा व्यक्ति दूसरों ही नहीं स्वयं पर भी विश्वास नहीं करता है।आचार्यों ने कहा है कि कितना ही छुपकर गलत कार्य करो परन्तु कर्मों से कोई नहीं बच सकता है।उसे उस पाप का फल अवश्य ही भोगना पडेगा।इस अवसर पर सिंगोली के अलावा बड़वाह,बोराव,झांतला,धनगाँव, थडोद सहित अन्य नगरों के समाजजन उपस्थित थे।

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