सिंगोली(निखिल रजनाती)।जो आत्मा को पाप से माँ के समान बचाये,उसे समिति कहते हैं। प्रवृत्ति करते हुए भी जो पापास्रव से बचा लेती है,वे समिति होती है।साधु चार हाथ भूमि देखकर दिन में ही गमन करते हैं।यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 1 सितम्बर शुक्रवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही।मुनि श्री ने कहा कि क्योंकि रात्रि में जीवों की उत्पत्ति अधिक होती है,गमनागमन में जीवों की विराधना हो सकती है,अत: साधु रात्रि में गमन नहीं करते है।सभी के साथ हितमित प्रिय बोलते हैं,संयमित भाषा का प्रयोग करते है।किसी से भी आदेशात्मक शब्दों में नहीं कहते हैं,यह उनकी भाषा समिति है।छियालीस दोषों से रहित नवधा भक्तिपूर्वक खडे हो कर दिन में एक बार श्रावक के द्वारा दिया गया शुद्ध प्रासुक आहार करना साधु की एषणा समिति है।अपने उपकरण उठाने रखने में जीवों की विराधना न हो,अत: उसे कोमल मयूर पिच्छिका से मार्जन करते हैं,यह उनकी आदान- निक्षेपण समिति हैं और छिद्र व जन्तु रहित प्रासुक भूमि पर मल मूत्र का विसर्जन करना प्रतिष्ठापन समिति है।बाहर में प्रवृत्ति या आचरण करते समय साधु इन पाँच समितियोंपूर्वक ही आचरण करते है।इन समिति के पालन करने से वे हमेशा पाप से सावधान रहते है।इन समितियों का पालन करते हुए भी यदि अनजाने में कोई दोष हो जाता है,तो भी वे पाप के भागी नहीं होते हैं।आचार्य कहते है कि एक माता जैसे अपने बच्चों का ध्यान रखती है उसी प्रकार ये समितियाँ भी मुनियों का ध्यान रखती है।इस अवसर पर सभी समाजजन उपस्थित थे।