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एक मात्र जैन दर्शन है जो जीने की कला के साथ मरने की कला भी सिखाता है- मुनि श्री सुप्रभ सागर

भक्ति भाव से मनाया गया शान्तिसागर जी महाराज का 68 वां समाधि दिवस 

सिंगोली(निखिल रजनाती)।नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज व मुनिश्री दर्शित सागर जी महाराज के सानिध्य में 17 सितंबर रविवार को 20 वीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज का 68 वां समाधि दिवस बड़े भक्ति भाव के साथ मनाया गया।रविवार को प्रातः काल श्रीजी का अभिषेक व शांतिधारा हुई।प्रथम शान्तिधारा करने का सौभाग्य पुष्पचन्द्र,सचिनकुमार ठग परिवार को प्राप्त हुआ व कार्यक्रम में मंगलाचरण अलकेश बागड़िया ने किया वहीं चित्र अनावरण पुष्पचन्द,सचिनकुमार ठग व शास्त्र दान का सौभाग्य महिला मण्डल को प्राप्त हुआ जिसके बाद आचार्य श्री की संगीतमय पूजन अभिषेक ठोला व अलकेश बागड़िया द्वारा भजनों के साथ समाजजनों व बाहर से पधारे समाजजनों ने आचार्य श्री को अर्ध्य समर्पित किए व उसके बाद समाजजनों द्वारा विनयांजलि सभा में आचार्य श्री के जीवन पर प्रकाश डाला जबकि मुनि श्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने विनयांजलि सभा को संबोधित करते हुए कहा कि साधना करने वाला साधक और सैनिक दोनों जब अपने कार्य क्षेत्र में जाते हैं तो सिर पर कफन बांध कर जाते है अर्थात् वे हर समय मृत्यु का सामना करने के लिए तैयार रहते हैं।प्रत्येक संयम की साधना करने वाले साधक की अन्तिम भावना सम्यग्मरण करने की होती है।इस हेतु जैनदर्शन में साधक की साधना रूपी मंदिर के स्वर्ण कलश के रूप में सल्लेखना को स्वीकार किया है।सल्लेखना आत्म घात नहीं है क्योंकि आत्म-घात करने वाले के संक्लेश परिणाम होते है,वह क्रोध आदि भावों के कारण आत्मघात करता है परन्तु सल्लेखना पूर्ण होश में जोश के साथ आत्मा की शुद्धि के लिए की जाती है।भारतीय दर्शनों में एकमात्र जैन दर्शन है जो आर्ट ऑफ लिविंग के साथ आर्ट ऑफ डाईंग भी सिखाता है।जीवन जीने की कला के साथ मरने की कला भी आना चाहिए और इसे ही सल्लेखना कहा गया है।दिगम्बर श्रमण परम्परा को पुनर्जीवित करने वाले चारित्र चक्रवर्ती प्रथमाचार्य श्री शान्ति सागर जी महाराज ने अपने संयम और धर्म की रक्षा हेतु आज से अड़सठ वर्ष पूर्व सल्लेखना व्रत की पूर्णता को आज के दिन प्राप्त किया था।इस दौरान मुनिश्री दर्शित सागरजी महाराज ने कहा कि आचार्य श्री शान्ति सागर जी महाराज का जन्म दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रान्त के बेलगांव जिला के भोज ग्राम के पास यलगुल में हुआ था।उनका गृहस्थ जीवन बहुत ही सादगी पूर्ण व्यतीत हुआ।आचार्य महाराज बाल अवस्था से ही वैराग्य भाव से भरे हुए थे,उनके दीक्षा ग्रहण करने के भाग युवावस्था से ही थे परन्तु माता-पिता की इच्छा के कारण वे उस समय दीक्षा नहीं ले पाए।सन् 1915 में उत्तर ग्राम में आपने क्षुल्लक दीक्षा और सन् 1920 में यरनाल में मुनि देवेन्द्र कीर्ति महाराज से मुनि दीक्षा धारण की थी।संयमी जीवन के 35 वर्षों में से लगभग 27 वर्ष उपवास में व्यतीत किए।शरीर संयम पालन करने में बाधा उत्पन्न करने के कारण आपने सन् 1955 के चातुर्मास के प्रारंभ में सल्लेखना की विधि प्रारभ की।36 दिन की सल्लेखना की साधना पूर्ण करते हुए आपने भाद्रपद शुक्ला द्वितीया अठारह सितम्बर उन्नीस सौ पचपन के दिन इस नश्वर देह का त्याग किया।जैसी साधना आचार्य भगवन ने की ऐसी शक्ति हमें भी प्राप्त हो और हम भी अपने संयमी जीवन का अन्त सल्लेखना पूर्वक कर सके यही भावना भाते हैं।इस अवसर पर सिंगोली के अलावा धनगाँव,थडोद,झांतला, बिजोलियाँ,बोराव सहित अन्य नगरों के समाजजन उपस्थित थे।

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