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त्याग भारतीय संस्कृति की अनादिकालीन परम्परा रही है - मुनिश्री दर्शित सागर

सिंगोली(निखिल रजनाती)।सिंगोली नगर के पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर पर दशलक्षण महापर्व बड़े धूमधाम व भक्ति भाव के साथ मनाया जा रहा है। मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज व मुनिश्री दर्शित सागर जी महाराज के सानिध्य में 26 सितंबर मंगलवार को उत्तम त्याग धर्म के आठवें दिन प्रातःकाल श्रीजी का अभिषेक व शांतिधारा हुई।प्रथम शान्तिधारा करने का सौभाग्य पदमकुमार,अनिलकुमार,पारस कुमार साकुण्या परिवार को प्राप्त हुआ उसके बाद संगीतमय पूजन,देव शास्त्र,गुरु सोलहकारण समुचिय पूजन दशलक्षण पूजन हुई वही तत्त्वार्थ सूत्र का वाचन कु.तनिषा बगड़ा व कु.सांची ठग ने किया।चित्र अनावरण,दीप प्रज्वलन,शास्त्र दान,शान्तिधारा सम्पन्न हुई उसके बाद उत्तम त्याग धर्म पर मुनिश्री ने धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा कि धन का संग्रह करने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता है।धन को भोग में लगाया तो मध्यम,दान में लगाया तो उत्तम और दोनों में नहीं लगाया तो अधम कहलाता है।त्याग भारतीय संस्कृति की अनादिकालीन परम्परा है।बाहुबली,राम आदि ने त्याग कर भारतीय परम्परा को मजबूती प्रदान की।बादल देता है अतः ऊपर रहता है और समुद्र संग्रह करता है अतः नीचे रहता है।उक्त बात दशलक्षण महापर्व के दौरान उत्तम त्याग धर्म पर सम्बोधन देते हुए मुनि श्री दर्शित सागर जी महाराज ने कही।उन्होंने कहा कि एक भिखारी भी हमें ज्ञान दे जाता है कि दान करो नहीं तो तुम भी मेरे समान हो जाओगे।दान-त्याग की प्रेरणा देने का कार्य साधु का है उस पर अपनी शक्ति अनुसार अमल करना श्रावकों का कर्तव्य है।सभा को सम्बोधित करते हुए मुनि श्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने कहा कि त्याग का संस्कार हमें प्रकृति से ही मिला है।हम श्वास लेते हैं,उसे छोडे बिना स्वच्छ वायु का पुनः ग्रहण नहीं किया जा सकता है।प्रकृति त्याग के लिए प्रेरणा देती है।वृक्षो में नए पत्ते आते है,सूखने पर झर जाते हैं क्योंकि नए पत्ते आने के लिए अनिवार्य है कि सूखे पत्ते गिर जाएं।फल लगते हैं और गिर जाते हैं।गाय दूध स्वयं छोड़ती है।त्याग से सुख की प्राप्ति होती है।जब व्यक्ति को शौचादि की बाधा होती है जब वह मलमूत्र का त्याग कर देता है तो उसे सुख-शान्ति का अनुभव होता है।उसी प्रकार पाप कर्मों का त्यागकर व्यक्ति सुख का अनुभव कर सकता है।दान और त्याग में शाब्दिक अन्तर नहीं कहा जा सकता है।आचार्यों ने कहा है कि दान सापेक्ष होता है अर्थात दान के लिए दो की आवश्यकता होती है परन्तु त्याग स्वसापेक्ष होता है,इसमें पर की आवश्यकता नहीं होती है।त्याग-धर्म साधुओं की मुख्यता से कहा है तो दान श्रावकों की अपेक्षा से।दान के माध्यम से श्रावक गृहस्थ कार्यों से अर्जन पापों का प्रक्षालन कर सकता है।श्रावकों के लिए चार प्रकार के दान कहे हैं।आहारादि दानों में श्रावकों को अपनी शक्ति के अनुसार दान देने चाहिए।इस अवसर पर सभी समाजजन उपस्थित थे।

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